प्राचीन काल में, जब मानव समाज अपने शैशव काल में था, तब जीवन बहुत कठिन और अनिश्चित था। भोजन और आश्रय की तलाश में लोग एक स्थान से दूसरे स्थान पर भटकते रहते थे। इस अस्थिर जीवन में एक बड़ी समस्या थी - बच्चों का पालन-पोषण।
एक दिन, एक युवा महिला अपने नवजात शिशु को लेकर जंगल में भटक रही थी। वह थकी हुई और भूखी थी, लेकिन उसे अपने बच्चे के लिए दूध और भोजन की तलाश करनी थी। अचानक उसकी मुलाकात एक युवक से हुई जो शिकार कर रहा था। युवक ने महिला और बच्चे की दयनीय स्थिति देखी और उन्हें अपने साथ ले गया।
यह घटना एक नए युग की शुरुआत थी। धीरे-धीरे लोगों ने महसूस किया कि अगर वे एक साथ रहें तो जीवन आसान हो सकता है। पुरुष शिकार करके भोजन ला सकते थे, जबकि महिलाएं बच्चों की देखभाल कर सकती थीं। इस तरह से प्रारंभिक परिवारों का जन्म हुआ।
लेकिन यह व्यवस्था भी पूर्ण नहीं थी। कई बार पुरुष अपने परिवार को छोड़कर चले जाते थे, जिससे महिलाओं और बच्चों को कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था। इस समस्या का समाधान खोजने के लिए समाज के बुजुर्गों ने एक नया विचार प्रस्तुत किया - विवाह संस्था।
विवाह का यह नया विचार धीरे-धीरे लोकप्रिय होने लगा। इसने पुरुषों और महिलाओं को एक दूसरे के प्रति जिम्मेदार बनाया। अब परिवार एक मजबूत इकाई बन गए थे। लेकिन क्या यह व्यवस्था सभी के लिए उपयुक्त थी? क्या इससे नई समस्याएं पैदा नहीं होंगी?
जैसे-जैसे समाज विकसित होता गया, विवाह के नियम भी बदलते गए। प्राचीन भारत में, वैदिक काल में विवाह को एक पवित्र संस्कार माना जाने लगा। ऋग्वेद में विवाह के मंत्रों का उल्लेख मिलता है, जो इसकी प्राचीनता को दर्शाता है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि उस समय विवाह के आठ प्रकार प्रचलित थे?
ब्राह्म विवाह सबसे श्रेष्ठ माना जाता था, जिसमें पिता अपनी सुशिक्षित कन्या का दान एक योग्य वर को करता था। दैव विवाह में कन्या का दान यज्ञ करने वाले पुरोहित को किया जाता था। आर्ष विवाह में वर कन्या के पिता को गाय या बैल देता था। प्राजापत्य विवाह में माता-पिता कन्या को वर के साथ भेजते थे।
लेकिन इन चारों के अलावा चार और प्रकार के विवाह थे जो समाज में विवाद का विषय थे। गांधर्व विवाह में युवक-युवती स्वयं विवाह कर लेते थे। आसुर विवाह में वर कन्या के परिवार को धन देकर कन्या प्राप्त करता था। राक्षस विवाह में कन्या का अपहरण करके विवाह किया जाता था। और सबसे निंदनीय था पैशाच विवाह, जिसमें सोई हुई या नशे में धुत कन्या से बलात्कार करके विवाह कर लिया जाता था।
इन विभिन्न प्रकार के विवाहों ने समाज में नई चुनौतियां पैदा कीं। क्या इन सभी को मान्यता दी जानी चाहिए? क्या इनमें से कुछ को अवैध घोषित किया जाना चाहिए? इन प्रश्नों ने धर्मशास्त्रकारों और समाज सुधारकों को सोचने पर मजबूर कर दिया।
मनु ने अपने धर्मशास्त्र में पहले चार प्रकार के विवाहों को ही मान्यता दी। उन्होंने कहा कि अन्य प्रकार के विवाह अधर्म हैं और समाज के लिए हानिकारक हैं। लेकिन क्या समाज इन नियमों का पालन करेगा? क्या प्रेम विवाह को पूरी तरह से नकारा जा सकता है?
समय के साथ-साथ विवाह के नियम और रीति-रिवाज बदलते गए। मध्यकाल में जाति व्यवस्था का प्रभाव बढ़ा और अंतर्जातीय विवाह पर प्रतिबंध लग गया। बाल विवाह और सती प्रथा जैसी कुरीतियां भी प्रचलित हो गईं। समाज में महिलाओं की स्थिति दयनीय हो गई।
19वीं सदी में भारतीय समाज सुधारकों ने इन कुरीतियों के खिलाफ आवाज उठाई। राजा राममोहन राय ने सती प्रथा के विरुद्ध आंदोलन चलाया। ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने विधवा पुनर्विवाह के लिए कानून बनवाया। महर्षि कर्वे ने बाल विवाह के विरुद्ध आंदोलन किया।
लेकिन क्या इन सुधारों से सभी समस्याओं का समाधान हो गया? क्या समाज में महिलाओं को पूर्ण समानता मिल गई? इन प्रश्नों के उत्तर अभी भी खोजे जा रहे थे।
20वीं सदी में भारत की स्वतंत्रता के साथ ही विवाह के क्षेत्र में भी नए कानून बने। हिंदू विवाह अधिनियम 1955 ने हिंदुओं के लिए एक पत्नी विवाह को कानूनी मान्यता दी। विशेष विवाह अधिनियम 1954 ने अंतर्धार्मिक विवाहों को कानूनी मान्यता प्रदान की। लेकिन क्या कानून बनाने से ही समाज में परिवर्तन आ जाता है?
21वीं सदी में विवाह संस्था नए दौर से गुजर रही है। आधुनिक शिक्षा और आर्थिक स्वतंत्रता ने युवाओं के विचारों को बदल दिया है। लिव-इन रिलेशनशिप, समलैंगिक विवाह, और देर से शादी करने का चलन बढ़ रहा है। कई युवा तो विवाह न करने का फैसला ले रहे हैं।
इन नए रुझानों ने समाज में नई बहस छेड़ दी है। क्या परंपरागत विवाह संस्था खतरे में है? क्या इन नए रिश्तों को कानूनी मान्यता दी जानी चाहिए? समाज के कुछ वर्ग इन परिवर्तनों का स्वागत कर रहे हैं, जबकि कुछ इन्हें भारतीय संस्कृति के लिए खतरा मान रहे हैं।
वर्तमान में, तकनीकी विकास ने विवाह के तरीकों को भी बदल दिया है। ऑनलाइन डेटिंग ऐप्स और वेबसाइट्स के माध्यम से लोग अपने जीवनसाथी की तलाश कर रहे हैं। कोरोना महामारी के दौरान वर्चुअल शादियों का चलन भी शुरू हुआ। लेकिन क्या ये नए तरीके पारंपरिक विवाह संस्था का स्थान ले पाएंगे?
आज भी कई समस्याएं हैं जिनका समाधान खोजा जा रहा है। दहेज प्रथा, घरेलू हिंसा, और तलाक की बढ़ती दर चिंता का विषय हैं। सरकार और सामाजिक संगठन इन समस्याओं से निपटने के लिए कानून बना रहे हैं और जागरूकता अभियान चला रहे हैं।
विवाह संस्था का भविष्य क्या होगा? क्या यह अपने पारंपरिक स्वरूप में बनी रहेगी या पूरी तरह से बदल जाएगी? क्या हम एक ऐसे समाज की ओर बढ़ रहे हैं जहां विवाह एक विकल्प होगा, न कि अनिवार्यता? इन प्रश्नों के उत्तर आने वाले समय में ही मिल पाएंगे।
विवाह की यह लंबी यात्रा मानव सभ्यता के विकास की कहानी है। यह बताती है कि कैसे एक सरल व्यवस्था से शुरू होकर यह एक जटिल सामाजिक संस्था बन गई। इसने समाज को स्थिरता दी, परिवारों को मजबूत किया, लेकिन साथ ही कई नई चुनौतियां भी पैदा कीं।
आज, जब हम 21वीं सदी में खड़े हैं, विवाह संस्था फिर से एक नए मोड़ पर है। तकनीकी विकास, सामाजिक मूल्यों में बदलाव, और वैश्वीकरण ने इसे नए रूप दिए हैं। लेकिन क्या इसका मूल उद्देश्य - दो व्यक्तियों का एक दूसरे के प्रति समर्पण और प्रेम - बदला है?
विवाह की यह कहानी अभी समाप्त नहीं हुई है। यह एक ऐसी कहानी है जो हर पीढ़ी के साथ नए अध्याय जोड़ती जाती है। हर समाज, हर संस्कृति इसमें अपना योगदान देती है। और शायद यही इस संस्था की सबसे बड़ी ताकत है - इसकी क्षमता परिवर्तन को स्वीकार करने और फिर भी अपने मूल स्वरूप को बनाए रखने की।
तो क्या होगा विवाह का भविष्य? क्या यह अपने पारंपरिक स्वरूप में बना रहेगा या पूरी तरह से बदल जाएगा? क्या हम एक ऐसे समाज की ओर बढ़ रहे हैं जहां विवाह एक विकल्प होगा, न कि अनिवार्यता? इन प्रश्नों के उत्तर आने वाले समय में ही मिल पाएंगे। लेकिन एक बात निश्चित है - जब तक मानव समाज रहेगा, तब तक विवाह किसी न किसी रूप में मौजूद रहेगा, क्योंकि यह मानव की मूलभूत आवश्यकता - साथी की तलाश और प्रेम - को पूरा करता है।
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