बाल विवाह: एक युग पुरानी प्रथा की कहानी
प्राचीन भारत में, जब वेदों और उपनिषदों का युग था, विवाह एक पवित्र संस्कार माना जाता था। उस समय लड़कियों और लड़कों को अपने जीवनसाथी चुनने की स्वतंत्रता थी। स्वयंवर प्रथा प्रचलित थी, जहां युवतियां अपने पति का चयन करती थीं। लेकिन धीरे-धीरे समाज में बदलाव आने लगा...
मध्यकाल तक आते-आते, समाज में नए विचार पनपने लगे। कन्याओं की सुरक्षा और कुल की मर्यादा को लेकर चिंता बढ़ने लगी। लोग सोचने लगे कि अगर लड़कियों की शादी जल्दी कर दी जाए, तो वे सुरक्षित रहेंगी। यह सोच धीरे-धीरे एक प्रथा में बदल गई।
8वीं शताब्दी के आसपास, मनुस्मृति जैसे ग्रंथों में लिखा गया कि पिता को अपनी पुत्री का विवाह उसके यौवन प्राप्त करने से पहले ही कर देना चाहिए। इस विचार ने समाज में जड़ें जमा लीं। लोग मानने लगे कि जल्दी शादी करना धार्मिक कर्तव्य है।
10वीं-11वीं शताब्दी तक आते-आते बाल विवाह एक आम प्रथा बन गई थी। कई परिवारों में 8-10 साल की उम्र में ही लड़कियों की शादी कर दी जाती थी। समाज में यह मान्यता थी कि जितनी जल्दी शादी होगी, उतना ही अच्छा है।
लेकिन क्या यह सही था? क्या इतनी कम उम्र में शादी करना उचित था? इस प्रथा के क्या परिणाम होंगे?
समय बीतता गया और बाल विवाह की प्रथा और भी मजबूत होती गई। 16वीं-17वीं शताब्दी तक आते-आते यह एक सामाजिक बुराई का रूप ले चुकी थी। कई लड़कियों का विवाह 5-6 साल की उम्र में ही कर दिया जाता था। उन्हें अपने बचपन से वंचित कर दिया जाता था।
लेकिन अब समाज में कुछ लोग इस प्रथा के खिलाफ आवाज उठाने लगे थे। 19वीं शताब्दी में राजा राममोहन राय जैसे समाज सुधारकों ने बाल विवाह के विरुद्ध अभियान चलाया। उन्होंने इसके दुष्परिणामों के बारे में लोगों को जागरूक किया।
1860 के दशक में एक ऐसी घटना हुई, जिसने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया। 11 साल की फुलमोनी दासी की मृत्यु हो गई। वह अपने 35 वर्षीय पति के साथ संबंध बनाने के दौरान गंभीर रूप से घायल हो गई थी। इस घटना ने लोगों को सोचने पर मजबूर कर दिया।
इसी दौरान एक और महिला ने बाल विवाह के खिलाफ आवाज उठाई। वह थीं रुखमाबाई। उन्होंने 11 साल की उम्र में हुई अपनी शादी को मानने से इनकार कर दिया। उन्होंने कहा कि वह अपने पति के साथ नहीं रहेंगी। यह मामला कोर्ट तक पहुंच गया।
इन घटनाओं ने सरकार को कुछ करने के लिए मजबूर कर दिया। 1891 में एज ऑफ कंसेंट एक्ट पारित किया गया। इसके तहत लड़कियों के लिए शादी की न्यूनतम उम्र 12 साल तय की गई। लेकिन क्या इससे समस्या का समाधान हो गया?
20वीं शताब्दी की शुरुआत में महात्मा गांधी ने भी बाल विवाह के खिलाफ आवाज उठाई। उन्होंने कहा कि यह प्रथा समाज के लिए अभिशाप है। गांधीजी के प्रयासों से लोगों में जागरूकता बढ़ी।
1927 में हरबिलास शारदा ने बाल विवाह रोकथाम अधिनियम पेश किया। इसे शारदा एक्ट के नाम से जाना जाता है। इस कानून के तहत लड़कियों के लिए शादी की न्यूनतम उम्र 14 साल और लड़कों के लिए 18 साल तय की गई। यह एक ऐतिहासिक कदम था।
लेकिन क्या कानून बनाने से ही समस्या का समाधान हो गया? क्या लोगों की सोच में बदलाव आया?
आजादी के बाद भी बाल विवाह की समस्या बनी रही। 1978 में शारदा एक्ट में संशोधन किया गया। अब लड़कियों के लिए शादी की न्यूनतम उम्र 18 साल और लड़कों के लिए 21 साल कर दी गई। लेकिन फिर भी यह प्रथा पूरी तरह खत्म नहीं हुई।
21वीं सदी में भी बाल विवाह एक गंभीर समस्या बनी हुई है। 2006 में बाल विवाह निषेध अधिनियम पारित किया गया। इसके तहत बाल विवाह करवाने वालों के लिए कड़ी सजा का प्रावधान किया गया। लेकिन क्या कानून ही काफी है?
आज भी देश के कई हिस्सों में बाल विवाह होते हैं। गरीबी, अशिक्षा और रूढ़िवादी सोच इसके प्रमुख कारण हैं। सरकार और समाज सुधारक इस समस्या से निपटने के लिए लगातार प्रयास कर रहे हैं।
लेकिन क्या सिर्फ कानून और जागरूकता अभियान से यह समस्या खत्म हो जाएगी? क्या लोगों की सोच में बदलाव लाना जरूरी नहीं है? क्या हमें अपने समाज की मूल संरचना पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता नहीं है?
बाल विवाह की यह कहानी हमें बताती है कि किस तरह एक प्रथा समय के साथ एक सामाजिक बुराई में बदल जाती है। यह हमें सोचने पर मजबूर करती है कि क्या हमारे समाज में ऐसी और कोई प्रथाएं हैं, जिन पर पुनर्विचार की आवश्यकता है?
आज भी यह लड़ाई जारी है। कानून बन चुके हैं, लेकिन उनका कड़ाई से पालन नहीं हो रहा। शिक्षा और जागरूकता बढ़ रही है, लेकिन गति धीमी है। नई चुनौतियां सामने आ रही हैं। तकनीक के इस युग में बाल विवाह के नए रूप सामने आ रहे हैं।
क्या हम इस समस्या को जड़ से खत्म कर पाएंगे? क्या आने वाली पीढ़ियां एक ऐसे समाज में जीएंगी, जहां हर बच्चे को अपना बचपन जीने का अधिकार होगा? यह सवाल आज भी हमारे सामने है।
बाल विवाह की यह कहानी हमें बताती है कि सामाजिक बदलाव एक लंबी और कठिन प्रक्रिया है। इसके लिए कानून के साथ-साथ लोगों की सोच में भी बदलाव जरूरी है। यह कहानी हमें प्रेरित करती है कि हम अपने समाज को बेहतर बनाने के लिए निरंतर प्रयास करते रहें।
क्या हम इस चुनौती का सामना कर पाएंगे? क्या हम एक ऐसा समाज बना पाएंगे, जहां हर बच्चा सुरक्षित और खुशहाल हो? यह सवाल हम सभी के लिए है। आइए, हम सब मिलकर इस लक्ष्य की ओर बढ़ें।
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