एक अनंत यात्रा: अमिताभ बच्चन की आत्मकथा
प्रारंभ: जन्म और बचपन
11 अक्टूबर 1942 को इलाहाबाद के एक साधारण परिवार में मेरा जन्म हुआ। मेरे पिता हरिवंश राय बच्चन एक प्रसिद्ध हिंदी कवि थे और मां तेजी बच्चन एक सामाजिक कार्यकर्ता थीं। शुरुआत में मेरा नाम 'इंकलाब' रखा गया था, लेकिन बाद में इसे बदलकर 'अमिताभ' कर दिया गया, जिसका अर्थ है "वह रोशनी जो कभी नहीं बुझेगी"।
मेरा बचपन इलाहाबाद में बीता। हमारा घर साहित्य और कला से भरा हुआ था। पिताजी के मित्र अक्सर घर आते और देर रात तक काव्य गोष्ठियां चलती रहतीं। मैं एक कोने में बैठकर उनकी बातें सुनता रहता। शायद तभी से मेरे मन में अभिनय का बीज पड़ गया था।
स्कूल के दिनों में मैं एक शर्मीला बच्चा था। लेकिन जब भी स्कूल में कोई नाटक या कार्यक्रम होता, मैं उसमें भाग लेने के लिए उत्सुक रहता। धीरे-धीरे मेरा आत्मविश्वास बढ़ने लगा।
किशोरावस्था: शेरवुड कॉलेज के दिन
13 साल की उम्र में मुझे नैनीताल के प्रतिष्ठित शेरवुड कॉलेज में भेज दिया गया। यह मेरे जीवन का एक नया अध्याय था। पहाड़ों के बीच स्थित यह बोर्डिंग स्कूल मेरा दूसरा घर बन गया।
यहाँ मैंने न केवल पढ़ाई में बल्कि खेलकूद में भी अपनी प्रतिभा दिखाई। मैं 100, 200 और 400 मीटर की दौड़ में विजेता रहा। इतना ही नहीं, मुझे बॉक्सिंग चैंपियनशिप भी जीतने का गौरव प्राप्त हुआ।
लेकिन मेरा सबसे प्रिय शौक था - थिएटर। स्कूल के हर नाटक में मैं मुख्य भूमिका निभाता। कभी शेक्सपियर के हैमलेट बनता तो कभी जूलियस सीजर। मंच पर अभिनय करते हुए मुझे अपार आनंद मिलता। शायद तभी से मेरे मन में फिल्मों में आने का सपना पनपने लगा था।
युवावस्था: दिल्ली विश्वविद्यालय और कलकत्ता
शेरवुड से स्नातक करने के बाद मैं दिल्ली विश्वविद्यालय के किरोड़ीमल कॉलेज में दाखिल हुआ। यहाँ मैंने कला में स्नातक की पढ़ाई की। कॉलेज के दिनों में मेरी रुचि थिएटर में और बढ़ गई। मैं कॉलेज के नाट्य मंडल का सक्रिय सदस्य था।
लेकिन मेरे पिता चाहते थे कि मैं इंजीनियर बनूँ या फिर भारतीय वायु सेना में शामिल हो जाऊँ। उनकी इच्छा थी कि मैं एक सुरक्षित करियर चुनूँ। लेकिन मेरा मन तो फिल्मों की ओर खिंचा जा रहा था।
स्नातक के बाद मैंने कलकत्ता में एक शिपिंग कंपनी में नौकरी कर ली। दिन में ऑफिस जाता और शाम को थिएटर ग्रुप्स के साथ रिहर्सल करता। लेकिन मेरा मन कहीं नहीं लग रहा था। मुझे लगता था कि मैं अपने सपनों से दूर जा रहा हूँ।
मुंबई का सफर: संघर्ष के दिन
1969 में मैंने एक बड़ा फैसला लिया। मैंने अपनी नौकरी छोड़ दी और मुंबई आ गया। यहाँ आकर मुझे एहसास हुआ कि फिल्म इंडस्ट्री में अपनी जगह बनाना कितना मुश्किल है।
शुरुआती दिनों में मैं फिल्म स्टूडियो के बाहर घंटों खड़ा रहता, किसी मौके की तलाश में। कई बार निराशा हाथ लगी। एक बार तो मुझे ऑल इंडिया रेडियो ने मेरी आवाज़ के कारण रिजेक्ट कर दिया। वही आवाज़ जो आगे चलकर मेरी पहचान बनी।
लेकिन मैंने हार नहीं मानी। मैं जानता था कि मेरे पास प्रतिभा है, बस मौके की तलाश थी। और वह मौका आया 1969 में, जब मुझे खयाल फिल्म "सात हिंदुस्तानी" में एक छोटी सी भूमिका मिली। यह मेरी पहली फिल्म थी।
इसके बाद कुछ और छोटी-मोटी भूमिकाएँ मिलीं। 1971 में आई फिल्म "आनंद" में मुझे डॉक्टर की भूमिका मिली। इस फिल्म ने मुझे पहचान दिलाई और मुझे पहला फिल्मफेयर अवार्ड भी मिला।
सफलता का सफर: "एंग्री यंग मैन" की छवि
1973 में आई फिल्म "जंजीर" ने मेरे करियर को नई दिशा दी। इस फिल्म ने मुझे "एंग्री यंग मैन" की छवि दी। मेरा किरदार - विजय - एक ऐसा युवक था जो भ्रष्टाचार और अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाता है। यह किरदार युवाओं के बीच बहुत लोकप्रिय हुआ।
इसके बाद "दीवार", "शोले", "त्रिशूल" जैसी कई हिट फिल्में आईं। मैं बॉलीवुड का सुपरस्टार बन गया। लोग मेरी एक झलक पाने के लिए घंटों इंतज़ार करते।
लेकिन सफलता के साथ विवाद भी आए। कुछ लोगों ने मेरी "एंग्री यंग मैन" की छवि की आलोचना की। उन्हें लगा कि मैं युवाओं को गलत राह पर ले जा रहा हूँ। लेकिन मैं जानता था कि मेरे किरदार सिर्फ न्याय की मांग कर रहे थे।
निजी जीवन: शादी और परिवार
1973 में मेरी ज़िंदगी में एक नया मोड़ आया। मैंने अपनी सह-कलाकार जया भादुड़ी से शादी कर ली। जया मेरे जीवन की सबसे बड़ी ताकत बनीं। उन्होंने मेरे करियर के उतार-चढ़ाव में हमेशा मेरा साथ दिया।
1974 में हमारी बेटी श्वेता का जन्म हुआ और 1976 में बेटे अभिषेक का। मेरा परिवार मेरी सबसे बड़ी प्राथमिकता बन गया। चाहे कितनी भी व्यस्तता हो, मैं हमेशा उनके लिए समय निकालता।
लेकिन स्टारडम के कारण कई बार परिवार को नज़रअंदाज़ करना पड़ता। कई बार बच्चों के जन्मदिन या स्कूल के कार्यक्रम मिस हो जाते। यह मेरे जीवन का सबसे बड़ा पछतावा है।
करियर में उतार-चढ़ाव
80 के दशक के अंत तक मेरा करियर शिखर पर था। लेकिन 90 के दशक की शुरुआत में मुझे कुछ असफलताओं का सामना करना पड़ा। कई फिल्में बॉक्स ऑफिस पर फ्लॉप रहीं।
1992 में मैंने राजनीति में कदम रखा। मैं अपने मित्र राजीव गांधी के समर्थन में इलाहाबाद से चुनाव लड़ा और जीत भी गया। लेकिन राजनीति मेरे लिए अनुकूल नहीं थी। तीन साल बाद मैंने इस्तीफा दे दिया।
1996 में मैंने अपनी प्रोडक्शन कंपनी ABCL शुरू की। लेकिन यह भी सफल नहीं हो पाई। मैं आर्थिक संकट में फंस गया। ऐसा लगा जैसे मेरा करियर खत्म हो गया है।
पुनरागमन: केबीसी और नए युग की फिल्में
लेकिन जैसे कहते हैं - "पिक्चर अभी बाकी है मेरे दोस्त"। 2000 में मुझे टेलीविजन गेम शो "कौन बनेगा करोड़पति" की मेजबानी का मौका मिला। यह शो इतना हिट हुआ कि मेरा करियर फिर से पटरी पर आ गया।
इसके बाद मैंने नए युग की फिल्मों में काम करना शुरू किया। "मोहब्बतें", "कभी खुशी कभी गम", "बागबान" जैसी फिल्मों ने मुझे एक नई पहचान दी। मैंने साबित कर दिया कि उम्र सिर्फ एक संख्या है।
2005 में आई फिल्म "ब्लैक" ने मुझे एक बार फिर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का राष्ट्रीय पुरस्कार दिलाया। इसके बाद "पा", "पीकू", "पिंक" जैसी फिल्मों ने साबित किया कि मैं अभी भी दर्शकों के दिलों पर राज कर सकता हूँ।
अंतरराष्ट्रीय पहचान
2013 में मुझे हॉलीवुड फिल्म "द ग्रेट गैट्सबी" में काम करने का मौका मिला। यह मेरी पहली अंतरराष्ट्रीय फिल्म थी। इसने मुझे वैश्विक स्तर पर पहचान दिलाई।
लंदन के मैडम तुसाद संग्रहालय में मेरी मोम की प्रतिमा स्थापित की गई। मैं ऐसा सम्मान पाने वाला पहला एशियाई कलाकार था। यह मेरे लिए बहुत गर्व की बात थी। यह न केवल मेरे लिए, बल्कि पूरे भारतीय सिनेमा के लिए एक ऐतिहासिक क्षण था।
मेरे करियर में कई उतार-चढ़ाव आए, लेकिन मैंने कभी हार नहीं मानी। हर बार मैं और मजबूत होकर उभरा। चाहे वह 90 के दशक की असफलताएं हों या फिर ABCL का संकट, मैंने हमेशा अपने काम पर ध्यान केंद्रित रखा।
जब 2000 में "कौन बनेगा करोड़पति" आया, तो यह मेरे करियर में एक नया मोड़ साबित हुआ। इसने न केवल मुझे एक नई पहचान दी, बल्कि मुझे दर्शकों से जुड़ने का एक नया माध्यम भी दिया।
आज जब मैं पीछे मुड़कर देखता हूं, तो मुझे लगता है कि मैंने अपने सपनों को साकार करने के लिए कड़ी मेहनत की है। लेकिन यह सफर अकेले नहीं था। मेरे परिवार, मेरे प्रशंसकों और फिल्म उद्योग के मेरे साथियों का समर्थन हमेशा मेरे साथ रहा।
मुझे कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है, जिनमें चार राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार और दादा साहेब फाल्के पुरस्कार शामिल हैं। लेकिन मेरे लिए सबसे बड़ा पुरस्कार मेरे दर्शकों का प्यार है। उनका समर्थन ही मुझे हर दिन बेहतर करने के लिए प्रेरित करता है।
आज भी, 80 की उम्र में, मैं नए प्रोजेक्ट्स और चुनौतियों के लिए उत्साहित रहता हूं। मेरा मानना है कि सीखने और विकास की कोई उम्र नहीं होती। मैं आने वाले समय में भी दर्शकों का मनोरंजन करता रहूंगा और भारतीय सिनेमा को नई ऊंचाइयों पर ले जाने का प्रयास करूंगा।
अंत में, मैं कहना चाहूंगा कि यह सफर अभी खत्म नहीं हुआ है। जैसा कि मैंने अपनी एक फिल्म में कहा था - "पिक्चर अभी बाकी है मेरे दोस्त!"
Citations:
[1] https://en.wikipedia.org/wiki/Amitabh_Bachchan
[2] https://in.bookmyshow.com/person/amitabh-bachchan/138
[3] https://starsunfolded.com/amitabh-bachchan/
[4] https://timesofindia.indiatimes.com/entertainment/hindi/bollywood/photo-features/amitabh-bachchans-6-memorable-moments-from-the-past/photostory/44774233.cms