थ्रेशर कृषि क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण मशीन है जो अनाज को भूसे से अलग करने का कार्य करती है। इसका इतिहास काफी पुराना और रोचक है। आइए इसके विकास की यात्रा पर एक नज़र डालें:
प्राचीन काल में थ्रेशिंग:
प्राचीन काल से ही किसान अनाज को भूसे से अलग करने के लिए विभिन्न तरीके अपनाते रहे हैं। सबसे पुराना तरीका था हाथों से पीटकर या पैरों से रौंदकर अनाज को अलग करना। इस प्रक्रिया को थ्रेशिंग कहा जाता था। यह एक श्रमसाध्य और समय लेने वाला काम था।
कुछ स्थानों पर पशुओं की मदद से भी थ्रेशिंग की जाती थी। फसल को जमीन पर फैलाकर उस पर पशुओं को चलाया जाता था, जिससे अनाज भूसे से अलग हो जाता था। यह तरीका कुछ हद तक आसान था, लेकिन फिर भी समय और श्रम की खपत अधिक होती थी।
18वीं शताब्दी तक थ्रेशिंग मुख्य रूप से हाथों से ही की जाती थी। किसान फ्लेल नामक एक उपकरण का इस्तेमाल करते थे, जिसमें एक लंबी लकड़ी के डंडे के साथ एक छोटा डंडा जुड़ा होता था। इससे फसल को पीटकर अनाज निकाला जाता था।
मशीनीकरण की शुरुआत:
औद्योगिक क्रांति के साथ कृषि क्षेत्र में भी मशीनीकरण की शुरुआत हुई। 1786 में स्कॉटिश इंजीनियर एंड्रयू मीकल ने पहली मैकेनिकल थ्रेशिंग मशीन का आविष्कार किया। यह मशीन हाथ से चलाई जाती थी और इसमें एक ड्रम होता था जिस पर लकड़ी के डंडे लगे होते थे। फसल को इस ड्रम के ऊपर से गुजारा जाता था, जिससे अनाज भूसे से अलग हो जाता था।
मीकल की मशीन ने थ्रेशिंग प्रक्रिया में क्रांति ला दी। इससे काम में तेजी आई और श्रम की बचत हुई। हालांकि शुरुआत में किसानों ने इस मशीन को अपनाने में हिचकिचाहट दिखाई, क्योंकि वे परंपरागत तरीकों से चिपके हुए थे।
19वीं शताब्दी में विकास:
19वीं शताब्दी के दौरान थ्रेशर में कई सुधार हुए। 1830 के दशक में भाप से चलने वाले थ्रेशर का आविष्कार हुआ। इससे मशीन की क्षमता में भारी वृद्धि हुई और बड़े पैमाने पर थ्रेशिंग संभव हो गई।
1834 में अमेरिकी आविष्कारक हाइरम मूर और जॉन हास्किन्स ने एक नए प्रकार के थ्रेशर का पेटेंट कराया। इस मशीन में एक घूमता हुआ सिलेंडर था जो फसल को पीटता था और एक कनकेव था जो अनाज को भूसे से अलग करता था।
1837 में हाइरम और जॉन ने अपने थ्रेशर में एक फैनिंग मिल जोड़ा, जो अनाज को और भी साफ करता था। यह संयुक्त मशीन "थ्रेशर-क्लीनर" के नाम से जानी जाने लगी।
1860 के दशक में जे.आई. केस कंपनी ने एक बड़ा थ्रेशर बनाया जो एक दिन में 1,000 बुशल अनाज की थ्रेशिंग कर सकता था। यह उस समय का एक बड़ा तकनीकी कदम था।
20वीं शताब्दी में आधुनिकीकरण:
20वीं शताब्दी के आरंभ में थ्रेशर में और अधिक सुधार हुए। गैसोलीन और डीजल इंजन के आविष्कार ने थ्रेशर को और अधिक शक्तिशाली और कुशल बना दिया। अब एक ही मशीन कटाई, थ्रेशिंग और सफाई का काम कर सकती थी।
1911 में ऑस्ट्रेलियाई आविष्कारक हेडली टेलर ने पहला स्व-चालित हार्वेस्टर-थ्रेशर बनाया। इसे "हेडर हार्वेस्टर" के नाम से जाना जाता था। यह मशीन खड़ी फसल की कटाई और थ्रेशिंग एक साथ कर सकती थी।
1920 के दशक तक आते-आते कंबाइन हार्वेस्टर का विकास हो गया था। यह एक ऐसी मशीन थी जो खेत में ही फसल की कटाई, थ्रेशिंग और सफाई का काम एक साथ कर सकती थी। इससे किसानों की उत्पादकता में भारी वृद्धि हुई।
भारत में थ्रेशर का विकास:
भारत में थ्रेशर का प्रचलन स्वतंत्रता के बाद शुरू हुआ। 1960 के दशक में हरित क्रांति के दौरान कृषि के आधुनिकीकरण पर जोर दिया गया। इसी समय थ्रेशर जैसी मशीनों का उपयोग बढ़ा।
शुरुआत में भारत में आयातित थ्रेशर का इस्तेमाल होता था। लेकिन धीरे-धीरे स्थानीय कंपनियों ने भी थ्रेशर का निर्माण शुरू कर दिया। पंजाब जैसे राज्यों में थ्रेशर का व्यापक उपयोग होने लगा।
1970 और 80 के दशक में भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (IARI) ने कई प्रकार के थ्रेशर विकसित किए, जो विभिन्न फसलों के लिए उपयुक्त थे। इनमें पैडल थ्रेशर, पावर थ्रेशर और मल्टी-क्रॉप थ्रेशर शामिल थे।
वर्तमान स्थिति:
आज भारत में विभिन्न प्रकार के थ्रेशर उपलब्ध हैं:
1. मल्टी-क्रॉप थ्रेशर: यह सबसे लोकप्रिय प्रकार है जो विभिन्न फसलों के लिए उपयोग किया जा सकता है।
2. गेहूं थ्रेशर: विशेष रूप से गेहूं की थ्रेशिंग के लिए डिज़ाइन किया गया।
3. धान थ्रेशर: धान की थ्रेशिंग के लिए उपयुक्त।
4. मक्का थ्रेशर: मक्का के लिए विशेष रूप से बनाया गया।
5. दलहन थ्रेशर: दालों की थ्रेशिंग के लिए उपयोगी।
आधुनिक थ्रेशर में कई उन्नत सुविधाएं होती हैं, जैसे:
- स्वचालित फीडिंग सिस्टम
- उच्च क्षमता वाले इंजन
- कम ईंधन खपत
- कम शोर और कंपन
- बेहतर सुरक्षा सुविधाएं
थ्रेशर के फायदे:
1. समय और श्रम की बचत: थ्रेशर ने अनाज निकालने की प्रक्रिया को बहुत तेज और आसान बना दिया है।
2. उत्पादकता में वृद्धि: थ्रेशर की मदद से किसान बड़े पैमाने पर फसल की थ्रेशिंग कर सकते हैं।
3. अनाज की गुणवत्ता में सुधार: मशीनीकृत थ्रेशिंग से अनाज की गुणवत्ता बेहतर होती है और नुकसान कम होता है।
4. बहु-उपयोगिता: आधुनिक मल्टी-क्रॉप थ्रेशर विभिन्न प्रकार की फसलों के लिए उपयोग किए जा सकते हैं।
थ्रेशर के नुकसान:
1. उच्च प्रारंभिक लागत: थ्रेशर खरीदना छोटे किसानों के लिए महंगा हो सकता है।
2. रखरखाव की आवश्यकता: थ्रेशर को नियमित रखरखाव की आवश्यकता होती है।
3. दुर्घटना का खतरा: अनुचित उपयोग से दुर्घटनाएं हो सकती हैं।
4. रोजगार पर प्रभाव: मशीनीकरण से कुछ मैनुअल श्रमिकों के रोजगार प्रभावित हो सकते हैं।
भविष्य की संभावनाएं:
थ्रेशर तकनीक में लगातार नवाचार हो रहे हैं। भविष्य में हम निम्नलिखित विकास देख सकते हैं:
1. IoT और AI का एकीकरण: इससे मशीन की दक्षता और प्रदर्शन में सुधार होगा।
2. सौर ऊर्जा संचालित थ्रेशर: पर्यावरण के अनुकूल और कम लागत वाले विकल्प।
3. छोटे किसानों के लिए कॉम्पैक्ट और पोर्टेबल मॉडल।
4. बायोमास आधारित थ्रेशर: जो फसल अवशेषों का उपयोग ईंधन के रूप में कर सकें।
निष्कर्ष:
थ्रेशर का विकास मानव सभ्यता के विकास का एक महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है। इसने न केवल कृषि उत्पादकता में वृद्धि की है, बल्कि किसानों के जीवन को भी आसान बनाया है। प्राचीन काल के श्रमसाध्य तरीकों से लेकर आधुनिक स्वचालित मशीनों तक, थ्रेशर की यात्रा तकनीकी प्रगति और मानवीय आवश्यकताओं के बीच सामंजस्य का एक उदाहरण है।
आज भारत जैसे देशों में थ्रेशर कृषि का एक अभिन्न अंग बन गया है। यह न केवल समय और श्रम की बचत करता है, बल्कि फसल की गुणवत्ता में भी सुधार करता है। भविष्य में और अधिक उन्नत और टिकाऊ थ्रेशर के विकास की संभावना है, जो कृषि क्षेत्र को और अधिक कुशल और उत्पादक बनाएंगे।
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