पेंसिल मानव सभ्यता के विकास में एक महत्वपूर्ण उपकरण रही है। इसका इतिहास काफी पुराना और रोचक है। आइए इसके विकास की यात्रा पर एक नज़र डालें:
प्राचीन काल में लेखन:
मानव सभ्यता के आरंभ से ही लोग अपने विचारों और जानकारी को संरक्षित करने के लिए विभिन्न माध्यमों का उपयोग करते रहे हैं। प्राचीन काल में लोग पत्थरों, मिट्टी की टेबलेट, और पेड़ों की छाल पर लिखते थे। इस समय लेखन के लिए धातु के औजार, पत्थर के टुकड़े, या जानवरों की हड्डियों का इस्तेमाल किया जाता था।
ग्रेफाइट की खोज:
पेंसिल के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ 16वीं शताब्दी में आया, जब इंग्लैंड के कम्बरलैंड क्षेत्र में ग्रेफाइट की एक बड़ी खदान की खोज हुई। स्थानीय लोगों ने पाया कि इस काले पदार्थ से आसानी से निशान बनाए जा सकते हैं। इस खोज ने लेखन की दुनिया में क्रांति ला दी।
शुरुआती ग्रेफाइट पेंसिल:
ग्रेफाइट की खोज के बाद, लोगों ने इसे लकड़ी के टुकड़ों में लपेटकर इस्तेमाल करना शुरू किया। यह शुरुआती पेंसिल का रूप था। हालांकि, ये पेंसिल बहुत मुलायम थीं और आसानी से टूट जाती थीं। इसके अलावा, ग्रेफाइट हाथों को काला कर देता था।
कासपर फाबर और पेंसिल उद्योग:
1761 में, जर्मनी के कासपर फाबर ने पेंसिल बनाने का एक नया तरीका खोजा। उन्होंने ग्रेफाइट को पाउडर में बदलकर उसे मिट्टी के साथ मिलाया और फिर इसे लकड़ी के खोल में डाला। यह तकनीक इतनी सफल रही कि फाबर ने एक पेंसिल फैक्टरी शुरू की, जो आज भी फाबर-कास्टेल के नाम से जानी जाती है।
निकोलस जैक्स कॉन्टे का योगदान:
1795 में, फ्रांसीसी वैज्ञानिक निकोलस जैक्स कॉन्टे ने आधुनिक पेंसिल का आविष्कार किया। उन्होंने ग्रेफाइट और मिट्टी को विभिन्न अनुपातों में मिलाकर अलग-अलग कठोरता की पेंसिल बनाई। यह खोज इतनी महत्वपूर्ण थी कि आज भी पेंसिल बनाने की यही विधि इस्तेमाल की जाती है।
हाइमेन लिपमैन और इरेज़र टिप:
1858 में, अमेरिकी आविष्कारक हाइमेन लिपमैन ने पेंसिल के एक सिरे पर इरेज़र लगाने का पेटेंट कराया। यह एक छोटा सा बदलाव था, लेकिन इसने पेंसिल के उपयोग को और अधिक सुविधाजनक बना दिया।
20वीं शताब्दी में विकास:
20वीं शताब्दी में पेंसिल उद्योग में कई तकनीकी सुधार हुए। मशीनीकरण ने पेंसिल निर्माण को तेज और सस्ता बना दिया। इस दौरान कई नए प्रकार की पेंसिल भी विकसित की गईं, जैसे रंगीन पेंसिल, मैकेनिकल पेंसिल, और विशेष उद्देश्यों के लिए पेंसिल।
भारत में पेंसिल का इतिहास:
भारत में पेंसिल का इतिहास स्वतंत्रता के बाद शुरू होता है। 1950 के दशक तक भारत में अधिकांश पेंसिल विदेशों से आयात की जाती थीं। लेकिन 1953 में, तीन दोस्तों - एल.एन. धरमपाल, रमेश गोयल और नंद किशोर वाधवा ने मिलकर हिंदुस्तान पेंसिल्स प्राइवेट लिमिटेड की स्थापना की।
नटराज और अप्सरा पेंसिल की कहानी:
हिंदुस्तान पेंसिल्स ने 'नटराज' ब्रांड के नाम से पेंसिल बनानी शुरू की। यह भारत की पहली स्वदेशी पेंसिल थी। कंपनी ने जर्मनी से तकनीक आयात की और भारतीय परिस्थितियों के अनुकूल बनाया। नटराज पेंसिल जल्द ही भारतीय बाजार में लोकप्रिय हो गई।
1970 के दशक में कंपनी ने 'अप्सरा' ब्रांड लॉन्च किया, जो उच्च गुणवत्ता वाली पेंसिल थी। नटराज और अप्सरा दोनों ब्रांड भारतीय स्कूली बच्चों के बीच बहुत लोकप्रिय हुए।
वर्तमान स्थिति:
आज हिंदुस्तान पेंसिल्स भारत की सबसे बड़ी पेंसिल निर्माता कंपनी है। यह न केवल भारतीय बाजार में अग्रणी है, बल्कि 50 से अधिक देशों को पेंसिल निर्यात भी करती है। कंपनी रोजाना लगभग 85 लाख पेंसिल का उत्पादन करती है।
पेंसिल निर्माण प्रक्रिया:
पेंसिल बनाने की प्रक्रिया काफी रोचक है। सबसे पहले ग्रेफाइट और मिट्टी को विशेष अनुपात में मिलाया जाता है। फिर इस मिश्रण को एक मशीन में डाला जाता है जो इसे लंबी, पतली छड़ों में बदल देती है। इन छड़ों को फिर सुखाया जाता है और एक भट्टी में पकाया जाता है।
अगले चरण में, लकड़ी के बोर्ड को काटकर पेंसिल के आकार में बनाया जाता है। इन बोर्डों में खांचे बनाए जाते हैं जिनमें ग्रेफाइट की छड़ें रखी जाती हैं। फिर दूसरे बोर्ड को ऊपर से चिपका दिया जाता है। अंत में, पेंसिल को काटकर उसका आकार दिया जाता है और उस पर रंग या वार्निश किया जाता है।
पेंसिल के प्रकार:
आज बाजार में कई प्रकार की पेंसिल उपलब्ध हैं:
1. लकड़ी की पेंसिल: यह सबसे आम प्रकार की पेंसिल है।
2. मैकेनिकल पेंसिल: इसमें ग्रेफाइट की पतली लीड होती है जिसे बदला जा सकता है।
3. रंगीन पेंसिल: ये विभिन्न रंगों में आती हैं और चित्रकला के लिए उपयोग की जाती हैं।
4. कार्पेंटर पेंसिल: ये लकड़ी पर निशान लगाने के लिए उपयोग की जाती हैं।
5. डर्माटोग्राफ पेंसिल: ये चिकित्सा के क्षेत्र में त्वचा पर निशान लगाने के लिए उपयोग की जाती हैं।
पेंसिल का महत्व:
पेंसिल ने शिक्षा और कला के क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यह बच्चों के लिए लिखना सीखने का पहला उपकरण है। कलाकारों के लिए यह एक अनिवार्य उपकरण है। इंजीनियरों और वास्तुकारों के लिए भी पेंसिल एक महत्वपूर्ण उपकरण है।
पेंसिल का भविष्य:
डिजिटल युग में भी पेंसिल का महत्व कम नहीं हुआ है। हालांकि कंप्यूटर और डिजिटल उपकरणों ने कुछ क्षेत्रों में पेंसिल की जगह ले ली है, लेकिन शिक्षा और कला के क्षेत्र में पेंसिल अभी भी अपरिहार्य है। भविष्य में, हम पर्यावरण के अनुकूल और टिकाऊ पेंसिल देख सकते हैं।
निष्कर्ष:
पेंसिल का इतिहास मानव सभ्यता के विकास का एक रोचक अध्याय है। यह एक साधारण सी दिखने वाली वस्तु है, लेकिन इसके पीछे कई वैज्ञानिकों, आविष्कारकों और उद्यमियों का योगदान है। पेंसिल ने न केवल लेखन और कला को आसान बनाया है, बल्कि यह शिक्षा और रचनात्मकता का एक महत्वपूर्ण उपकरण भी रही है। आज भी, डिजिटल युग में, पेंसिल अपनी जगह बनाए हुए है और आने वाले समय में भी इसका महत्व कम होने की संभावना नहीं है।
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