तिब्बती चिकित्सा की रोमांचक यात्रा: प्राचीन ज्ञान से आधुनिक विज्ञान तक
हजारों वर्ष पहले, जब मानव सभ्यता अपने शैशव काल में थी, तिब्बत की पवित्र भूमि पर एक अद्भुत चिकित्सा पद्धति का जन्म हुआ। यह पद्धति थी तिब्बती चिकित्सा - जिसे तिब्बती भाषा में "सोवा रिग्पा" कहा जाता है, जिसका अर्थ है "चिकित्सा का विज्ञान"। आइए, इस प्राचीन ज्ञान की रोमांचक यात्रा पर चलें, जो हमें वर्तमान तक ले आएगी।
तिब्बती चिकित्सा की कहानी लगभग 2,500 वर्ष पूर्व से शुरू होती है। उस समय तिब्बत में बौन धर्म प्रचलित था। बौन शमानों ने चिकित्सा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने प्राकृतिक जड़ी-बूटियों और खनिजों का उपयोग करके रोगों का उपचार किया। यह ज्ञान पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ता गया।
7वीं शताब्दी में, तिब्बत के राजा सोंगत्सेन गम्पो ने तिब्बत को एकीकृत किया। उन्होंने अपनी दो बौद्ध पत्नियों - नेपाल की राजकुमारी भृकुटी और चीन की राजकुमारी वेन चेंग - के माध्यम से बौद्ध धर्म को तिब्बत में लाया। इन राजकुमारियों के साथ भारत और चीन से चिकित्सक भी आए, जिन्होंने तिब्बती चिकित्सा को समृद्ध किया।
8वीं शताब्दी में, राजा त्रिसोंग देउत्सेन ने समये मठ में पहला अंतरराष्ट्रीय चिकित्सा सम्मेलन आयोजित किया। इस सम्मेलन में भारत, चीन, फारस और अन्य क्षेत्रों के चिकित्सकों ने भाग लिया। इस सम्मेलन के बाद, वरिष्ठ युथोग योनतेन गोनपो नामक एक प्रसिद्ध तिब्बती चिकित्सक ने विभिन्न चिकित्सा पद्धतियों का संश्लेषण किया और "ग्युशी" (चिकित्सा के चार तंत्र) नामक ग्रंथ की रचना की। यह ग्रंथ आज भी तिब्बती चिकित्सा का मूल आधार है।
ग्युशी में तिब्बती चिकित्सा के मूल सिद्धांतों का वर्णन है। इसमें तीन दोषों - वात, पित्त और कफ - का सिद्धांत दिया गया है, जो आयुर्वेद से मिलता-जुलता है। इसके अलावा, पांच तत्वों - पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश - की अवधारणा भी दी गई है। तिब्बती चिकित्सा का मानना है कि इन तत्वों और दोषों के संतुलन से ही स्वास्थ्य बना रहता है।
मध्यकाल में, तिब्बती चिकित्सा का और विकास हुआ। 11वीं शताब्दी में, युथोग योनतेन गोनपो द्वितीय ने ग्युशी पर विस्तृत टीका लिखी और कई नए औषधीय योग विकसित किए। 13वीं शताब्दी में, देउमार गेशे तेनजिन फुंत्सोग ने "शेल गोंग शेल फ्रेंग" नामक ग्रंथ लिखा, जिसमें तिब्बती चिकित्सा के इतिहास का विस्तृत वर्णन है।
17वीं शताब्दी में, पांचवें दलाई लामा ने लहासा में चागपोरी मेडिकल कॉलेज की स्थापना की। यह तिब्बत का पहला औपचारिक चिकित्सा विद्यालय था। इस कॉलेज ने तिब्बती चिकित्सा के प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
20वीं शताब्दी के आरंभ में, तिब्बती चिकित्सा को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा। 1950 में चीन ने तिब्बत पर कब्जा कर लिया। 1959 में, 14वें दलाई लामा और हजारों तिब्बतियों को भारत में शरण लेनी पड़ी। इस दौरान, तिब्बत में तिब्बती संस्कृति और चिकित्सा पर बड़ा संकट आया।
लेकिन निर्वासन में भी तिब्बती चिकित्सा की ज्योति जलती रही। 1961 में, 14वें दलाई लामा ने भारत के धर्मशाला में मेन-त्सी-खांग (तिब्बती चिकित्सा और ज्योतिष संस्थान) की स्थापना की। यह संस्थान आज भी तिब्बती चिकित्सा के संरक्षण और प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है।
वर्तमान में, तिब्बती चिकित्सा एक नए युग में प्रवेश कर रही है। वैज्ञानिक शोध तिब्बती औषधियों की प्रभावकारिता को सिद्ध कर रहे हैं। जड़ी-बूटियों के रासायनिक विश्लेषण से नई दवाओं का विकास हो रहा है। तिब्बती चिकित्सा की समग्र दृष्टि आज के तनावपूर्ण जीवन में बहुत प्रासंगिक है।
तिब्बती चिकित्सा विशेष रूप से मानसिक रोगों, त्वचा रोगों, गठिया और पाचन संबंधी समस्याओं के उपचार में प्रभावी मानी जाती है। इसकी नाड़ी परीक्षा और मूत्र परीक्षा की विधियाँ अद्वितीय हैं। तिब्बती चिकित्सा में उपयोग की जाने वाली जड़ी-बूटियाँ और खनिज पदार्थ विशेष रूप से हिमालय क्षेत्र में पाए जाते हैं, जो इसे अनूठा बनाते हैं।
2019 में, विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने तिब्बती चिकित्सा को अंतरराष्ट्रीय रोग वर्गीकरण (ICD-11) में शामिल किया। यह तिब्बती चिकित्सा की वैश्विक मान्यता का प्रतीक है। आज, तिब्बती चिकित्सा न केवल तिब्बत और भारत में, बल्कि दुनिया भर में लोकप्रिय हो रही है।
लेकिन चुनौतियाँ भी हैं। तिब्बती औषधियों की गुणवत्ता और मानकीकरण एक बड़ी चिंता है। कई देशों में तिब्बती चिकित्सा को वैधानिक मान्यता नहीं मिली है। इन चुनौतियों से निपटने के लिए वैज्ञानिक शोध और अंतरराष्ट्रीय सहयोग की आवश्यकता है।
भविष्य में, तिब्बती चिकित्सा और आधुनिक चिकित्सा के बीच एक समन्वय की संभावना है। तिब्बती चिकित्सा की समग्र दृष्टि और आधुनिक चिकित्सा की तकनीकी क्षमता मिलकर एक नई स्वास्थ्य प्रणाली का निर्माण कर सकती हैं।
इस प्रकार, तिब्बती चिकित्सा की यात्रा प्राचीन बौन शमानों से लेकर आधुनिक वैज्ञानिकों तक फैली हुई है। यह एक ऐसी विरासत है जो हमें याद दिलाती है कि स्वास्थ्य केवल बीमारी का अभाव नहीं है, बल्कि शरीर, मन और आत्मा का संपूर्ण संतुलन है।
आज, जब हम तनाव, प्रदूषण और जीवनशैली से जुड़ी बीमारियों से जूझ रहे हैं, तिब्बती चिकित्सा हमें एक स्वस्थ और संतुलित जीवन जीने का मार्ग दिखाती है। यह हमें याद दिलाती है कि हम प्रकृति का एक अभिन्न अंग हैं और उसके साथ सामंजस्य में रहकर ही हम वास्तविक स्वास्थ्य प्राप्त कर सकते हैं।
तिब्बती चिकित्सा की यह यात्रा यहीं समाप्त नहीं होती। यह एक सतत प्रक्रिया है, जो निरंतर विकसित हो रही है। जैसे-जैसे हम नई चुनौतियों का सामना करते हैं, तिब्बती चिकित्सा भी नए समाधान खोजती है। यह प्राचीन ज्ञान और आधुनिक विज्ञान का एक अद्भुत संगम है, जो मानवता के कल्याण के लिए समर्पित है।
अंत में, तिब्बती चिकित्सा की यह कहानी हमें सिखाती है कि ज्ञान कभी पुराना नहीं होता। हजारों वर्ष पहले की गई खोजें आज भी प्रासंगिक हैं। यह हमें याद दिलाती है कि हमारे पूर्वजों ने हमें एक अमूल्य विरासत दी है, जिसे संरक्षित करना और आगे बढ़ाना हमारा कर्तव्य है।
तिब्बती चिकित्सा की यह यात्रा जारी है, नए अध्यायों के साथ, नई खोजों के साथ। और इस यात्रा में हम सभी सहभागी हैं - चाहे हम चिकित्सक हों, शोधकर्ता हों या सामान्य नागरिक। क्योंकि अंततः, तिब्बती चिकित्सा केवल एक चिकित्सा पद्धति नहीं है, यह एक जीवन दर्शन है, जो हमें स्वस्थ, संतुलित और आनंदमय जीवन जीने की कला सिखाता है।
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