प्राचीन काल से ही मनुष्य को अंधेरे में रोशनी की जरूरत महसूस होती रही है। शुरुआत में लोग मशाल या दीये का इस्तेमाल करते थे, लेकिन इनमें कई समस्याएं थीं। मशाल और दीया बार-बार बुझ जाते थे और उन्हें फिर से बार-बार जलाने की जरूरत पड़ती थी। लोग सोचते रहते थे कि काश कोई ऐसा तरीका होता जिससे आसानी से और जल्दी आग जलाई जा सके।
एक दिन की बात है, चीन के एक गांव में एक बुजुर्ग व्यक्ति रहता था। वह अक्सर जंगल में घूमने जाता था। एक दिन वह जंगल में टहल रहा था कि अचानक उसने कुछ अजीब सा देखा। एक पेड़ की शाखा दूसरी शाखा से रगड़ खा रही थी और उससे चिंगारियां निकल रही थीं। बुजुर्ग ने सोचा कि यह तो बहुत अच्छा तरीका है आग जलाने का। उसने उन शाखाओं को तोड़कर अपने साथ ले लिया।
गांव लौटकर उसने लोगों को यह तरीका बताया। लोग बहुत खुश हुए। अब वे आसानी से आग जला सकते थे। लेकिन एक समस्या थी - हर बार जंगल से नई शाखाएं लानी पड़ती थीं। लोग सोचने लगे कि क्या कोई ऐसा तरीका हो सकता है जिससे घर बैठे ही आग जलाई जा सके?
कुछ समय बाद, चीन में ही एक और महत्वपूर्ण खोज हुई। लोगों ने पाया कि कुछ खास तरह के पत्थरों को आपस में रगड़ने पर भी चिंगारियां निकलती हैं। इन पत्थरों को फ्लिंट कहा जाता था। अब लोग फ्लिंट पत्थर और लोहे की एक पट्टी को आपस में रगड़कर आग जलाने लगे। यह पहले से बेहतर था, लेकिन फिर भी काफी मेहनत की जरूरत पड़ती थी।
समय बीतता गया और लोग नए-नए तरीके खोजते रहे। 16वीं सदी में यूरोप में एक नया आविष्कार हुआ। लोगों ने पाया कि गंधक नाम के पदार्थ को किसी तेज़ाब में डुबोकर सुखाने के बाद उसे रगड़ने पर आग लग जाती है। इस तरह पहली बार रासायनिक तरीके से आग जलाने का तरीका खोजा गया। लेकिन यह भी बहुत सुरक्षित नहीं था।
1805 में फ्रांस के एक रसायनशास्त्री जीन चांडेलर ने एक नया प्रयोग किया। उन्होंने लकड़ी के टुकड़े को पोटेशियम क्लोरेट और गंधक के मिश्रण में डुबोया। सूखने के बाद जब इस लकड़ी को रगड़ा गया तो उसमें आग लग गई। यह पहली बार था जब किसी ने माचिस जैसी चीज़ बनाई थी। लेकिन यह भी बहुत खतरनाक थी क्योंकि इसमें विस्फोट हो सकता था।
अगले कुछ सालों तक वैज्ञानिक इस पर काम करते रहे। 1826 में इंग्लैंड के जॉन वॉकर ने एक नया तरीका खोजा। उन्होंने एंटीमनी सल्फाइड, पोटेशियम क्लोरेट, गम और स्टार्च का मिश्रण बनाया। इस मिश्रण को लकड़ी की तीलियों पर लगाया गया। जब इन तीलियों को रगड़ा जाता था तो आग लग जाती थी। यह पहली बार था जब आधुनिक माचिस का आविष्कार हुआ।
वॉकर के इस आविष्कार से दुनिया भर में तहलका मच गया। लोगों को लगा कि अब आग जलाने की समस्या हमेशा के लिए हल हो गई है। लेकिन क्या वाकई ऐसा था? क्या इस नई माचिस में कोई समस्या नहीं थी?
वॉकर की माचिस में एक बड़ी समस्या थी - इसमें बदबू बहुत आती थी। साथ ही यह जल्दी से आग पकड़ लेती थी, जिससे दुर्घटना का खतरा रहता था। लोग इससे परेशान थे और एक बेहतर समाधान की तलाश में थे।
1830 में फ्रांस के चार्ल्स सौरिया ने एक नया प्रयोग किया। उन्होंने फॉस्फोरस का इस्तेमाल किया। फॉस्फोरस एक ऐसा तत्व है जो हवा के संपर्क में आते ही जलने लगता है। सौरिया ने फॉस्फोरस को अन्य पदार्थों के साथ मिलाकर एक नया मिश्रण बनाया। इस मिश्रण को लकड़ी की तीलियों पर लगाया गया।
यह माचिस पहले से कहीं बेहतर थी। इसे जलाने के लिए किसी खास सतह पर रगड़ने की जरूरत नहीं थी। इसे कहीं भी रगड़कर जलाया जा सकता था। लोगों को यह बहुत पसंद आई। जल्द ही यह पूरे यूरोप में फैल गई।
लेकिन क्या यह सब कुछ सही था? क्या इस नई माचिस में कोई खतरा नहीं था?
दरअसल, फॉस्फोरस वाली माचिस में एक बड़ा खतरा छिपा था। फॉस्फोरस बहुत जहरीला होता है। माचिस बनाने वाले कारखानों में काम करने वाले मजदूरों की सेहत पर इसका बुरा असर पड़ने लगा। कई मजदूरों की मौत भी हो गई।
इस समस्या को देखते हुए वैज्ञानिक फिर से काम में जुट गए। उन्हें एक ऐसी माचिस बनानी थी जो सुरक्षित हो और आसानी से जल भी जाए। क्या वे ऐसा कर पाएंगे?
1844 में स्वीडन के गुस्ताव पैश ने एक नया आविष्कार किया। उन्होंने लाल फॉस्फोरस का इस्तेमाल किया जो सफेद फॉस्फोरस से कम खतरनाक था। उन्होंने माचिस की तीली और डिब्बे की रगड़ वाली सतह को अलग-अलग बनाया। तीली पर पोटेशियम क्लोरेट और एंटीमनी सल्फाइड लगाया गया, जबकि डिब्बे की सतह पर लाल फॉस्फोरस। जब तीली को डिब्बे पर रगड़ा जाता था तो दोनों रसायन मिलकर आग पैदा करते थे।
यह एक क्रांतिकारी खोज थी। इस नई माचिस को 'सेफ्टी मैच' कहा गया। यह पहले की माचिस से कहीं ज्यादा सुरक्षित थी। इसे सिर्फ डिब्बे पर ही रगड़कर जलाया जा सकता था, जिससे दुर्घटना का खतरा कम हो गया।
जल्द ही सेफ्टी मैच पूरी दुनिया में फैल गई। लोगों को लगा कि अब माचिस की समस्या हमेशा के लिए हल हो गई है। लेकिन क्या वाकई ऐसा था? क्या अब कोई नई चुनौती नहीं थी?
20वीं सदी की शुरुआत में एक नई समस्या सामने आई। माचिस बनाने के लिए बड़ी मात्रा में लकड़ी की जरूरत पड़ती थी। इससे जंगलों की कटाई बढ़ने लगी। पर्यावरणविदों ने इस पर चिंता जताई।
इस समस्या के समाधान के लिए वैज्ञानिकों ने नए तरीके खोजे। उन्होंने लकड़ी की जगह कागज और मोम का इस्तेमाल करना शुरू किया। इससे पेड़ों की कटाई कम हुई। साथ ही माचिस बनाने की लागत भी कम हो गई।
1970 के दशक में एक और बड़ा बदलाव आया - प्लास्टिक लाइटर का आविष्कार। लाइटर में गैस भरी होती है जिसे एक स्पार्क से जलाया जा सकता है। यह माचिस से ज्यादा सुविधाजनक था। कई लोगों ने माचिस की जगह लाइटर का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया।
लेकिन क्या लाइटर ने माचिस को पूरी तरह खत्म कर दिया? बिल्कुल नहीं! माचिस अभी भी दुनिया भर में इस्तेमाल की जाती है। खासकर गरीब देशों में जहां लाइटर महंगा पड़ता है, वहां माचिस अभी भी लोगों की पहली पसंद है।
आज 21वीं सदी में भी माचिस का विकास जारी है। वैज्ञानिक ऐसी माचिस बनाने की कोशिश कर रहे हैं जो पानी में भी जल सके। साथ ही वे ऐसी माचिस भी बना रहे हैं जो पर्यावरण के लिए बिल्कुल हानिकारक न हो।
लेकिन क्या यह सब कुछ है? क्या माचिस के विकास की कहानी यहीं खत्म हो जाती है?
नहीं, बिल्कुल नहीं! माचिस की कहानी अभी और आगे जाएगी। आज जब दुनिया ग्लोबल वार्मिंग जैसी समस्याओं से जूझ रही है, तब वैज्ञानिक ऐसी माचिस बनाने की कोशिश कर रहे हैं जो कार्बन उत्सर्जन न करे। कुछ लोग सौर ऊर्जा से चलने वाली माचिस पर काम कर रहे हैं।
साथ ही, अंतरिक्ष में भी माचिस की जरूरत महसूस की जा रही है। अंतरिक्ष यात्रियों को भी कभी-कभी आग की जरूरत पड़ती है। लेकिन वहां ऑक्सीजन की कमी होती है। ऐसे में वैज्ञानिक ऐसी माचिस बनाने की कोशिश कर रहे हैं जो बिना ऑक्सीजन के भी जल सके।
माचिस की कहानी हमें बताती है कि मानव की जिज्ञासा और खोज की भावना कभी खत्म नहीं होती। एक छोटी सी चीज़ जो हमारे रोजमर्रा के जीवन का हिस्सा है, उसके पीछे भी कितना बड़ा इतिहास छिपा है।
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