प्राचीन काल से ही मानव जाति संक्रामक रोगों से जूझती रही है। हजारों साल पहले, जब लोग बीमार पड़ते थे, तो उन्हें यह भी नहीं पता होता था कि उनकी बीमारी का कारण क्या है। वे देवी-देवताओं के प्रकोप या बुरी आत्माओं का असर मानते थे। फिर भी, प्राचीन सभ्यताओं ने कुछ प्राकृतिक उपचार खोज लिए थे।
मिस्र के प्राचीन पापीरस में लिखा मिलता है कि वे घावों पर फफूंद लगाते थे। चीन में, 2,000 साल पहले सोयाबीन के किण्वित पेस्ट का उपयोग फोड़े-फुंसी के इलाज के लिए किया जाता था। भारत में, आयुर्वेद में कई जड़ी-बूटियों का वर्णन मिलता है जो संक्रमण से लड़ने में मदद करती थीं।
लेकिन ये उपचार अक्सर अपर्याप्त होते थे। महामारियां पूरे शहरों और देशों को तबाह कर देती थीं। 14वीं सदी में, यूरोप में ब्लैक डेथ नाम की प्लेग महामारी ने लगभग आधी आबादी को खत्म कर दिया था। लोग असहाय थे, उन्हें नहीं पता था कि इस भयानक बीमारी से कैसे लड़ा जाए।
समय बीतता गया और विज्ञान ने प्रगति की। 17वीं सदी में, एंटोनी वान लीउवेनहुक ने पहली बार सूक्ष्मजीवों को देखा। लेकिन यह अभी भी अज्ञात था कि ये छोटे जीव बीमारियों का कारण बन सकते हैं।
19वीं सदी में, लुई पाश्चर और रॉबर्ट कोच जैसे वैज्ञानिकों ने साबित किया कि सूक्ष्मजीव संक्रामक रोगों का कारण बन सकते हैं। यह एक बड़ी खोज थी, लेकिन अभी भी एक बड़ा सवाल था - इन सूक्ष्मजीवों से कैसे लड़ा जाए?
1909 में, पॉल एर्लिच ने सिफलिस के इलाज के लिए सालवारसान नामक एक रासायनिक यौगिक विकसित किया। यह पहला आधुनिक एंटीबायोटिक था, लेकिन इसके गंभीर दुष्प्रभाव थे और इसका उपयोग सीमित था।
फिर 1928 में, एक घटना ने चिकित्सा के इतिहास को बदल दिया। स्कॉटिश वैज्ञानिक अलेक्जेंडर फ्लेमिंग अपनी लैब में काम कर रहे थे। वे स्टैफिलोकोकस बैक्टीरिया पर प्रयोग कर रहे थे। एक दिन, उन्होंने देखा कि उनकी एक पेट्री डिश में फफूंद उग आई थी और उसके आसपास के बैक्टीरिया मर गए थे।
फ्लेमिंग ने इस फफूंद का अध्ययन किया और पाया कि यह पेनिसिलियम नोटेटम नाम की फफूंद थी। उन्होंने इस फफूंद से एक पदार्थ निकाला जिसे उन्होंने 'पेनिसिलिन' नाम दिया। उन्होंने पाया कि यह पदार्थ कई तरह के बैक्टीरिया को मार सकता था।
यह एक महत्वपूर्ण खोज थी, लेकिन फ्लेमिंग को पेनिसिलिन को शुद्ध करने और बड़ी मात्रा में बनाने में कठिनाई हो रही थी। उन्होंने अपनी खोज के बारे में एक पेपर प्रकाशित किया, लेकिन वैज्ञानिक समुदाय ने इस पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया।
लेकिन फ्लेमिंग की खोज को भुलाया नहीं जा सकता था। 1930 के दशक में, ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के दो वैज्ञानिक - हॉवर्ड फ्लोरी और अर्नस्ट चेन ने फ्लेमिंग के काम को आगे बढ़ाया। उन्होंने पेनिसिलिन को शुद्ध करने और बड़ी मात्रा में बनाने की तकनीक विकसित की।
1940 में, फ्लोरी और चेन ने पहली बार एक मानव रोगी पर पेनिसिलिन का प्रयोग किया। यह एक पुलिस अधिकारी था जिसे गंभीर संक्रमण था। पेनिसिलिन ने चमत्कारिक रूप से काम किया और उस व्यक्ति की जान बच गई।
यह एक बड़ी सफलता थी, लेकिन एक नई चुनौती सामने आई। द्वितीय विश्व युद्ध चल रहा था और सैनिकों को संक्रमण से बचाने के लिए बड़ी मात्रा में पेनिसिलिन की आवश्यकता थी। अमेरिका और ब्रिटेन ने पेनिसिलिन के बड़े पैमाने पर उत्पादन के लिए एक बड़ा अभियान शुरू किया।
युद्ध के दौरान, पेनिसिलिन ने हजारों सैनिकों की जान बचाई। यह एक चमत्कारी दवा साबित हुई। युद्ध के बाद, पेनिसिलिन का व्यापक उपयोग शुरू हुआ। यह निमोनिया, गले का संक्रमण, और यहां तक कि सिफलिस जैसी बीमारियों का इलाज कर सकता था।
1945 में, फ्लेमिंग, फ्लोरी और चेन को पेनिसिलिन की खोज के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। पेनिसिलिन की सफलता ने वैज्ञानिकों को नए एंटीबायोटिक्स खोजने के लिए प्रेरित किया।
1943 में, अमेरिकी वैज्ञानिक सेल्मन वाक्समैन ने स्ट्रेप्टोमाइसिन की खोज की। यह तपेदिक के इलाज में कारगर साबित हुई, जो उस समय एक बड़ी समस्या थी। वाक्समैन ने 'एंटीबायोटिक' शब्द का भी प्रचलन किया।
1950 और 60 के दशक में कई नए एंटीबायोटिक्स विकसित किए गए। टेट्रासाइक्लिन, क्लोरैम्फेनिकॉल, एरिथ्रोमाइसिन जैसी दवाएं आईं। इन दवाओं ने चिकित्सा के क्षेत्र में क्रांति ला दी। ऐसा लगने लगा कि मानव जाति ने संक्रामक रोगों पर विजय पा ली है।
लेकिन प्रकृति ने एक नया संकट खड़ा कर दिया। कुछ बैक्टीरिया एंटीबायोटिक्स के प्रति प्रतिरोधी होने लगे। 1960 के दशक में मेथिसिलिन-प्रतिरोधी स्टैफिलोकोकस ऑरियस (MRSA) नामक एक सुपरबग सामने आया जो कई एंटीबायोटिक्स का असर नहीं लेता था।
वैज्ञानिकों ने इस चुनौती का सामना करने के लिए नए एंटीबायोटिक्स विकसित करने का प्रयास किया। 1970 और 80 के दशक में कई नई पीढ़ी के एंटीबायोटिक्स बनाए गए जैसे सेफालोस्पोरिन, फ्लोरोक्विनोलोन आदि। इन दवाओं ने कुछ समय के लिए राहत दी।
लेकिन एंटीबायोटिक प्रतिरोध की समस्या लगातार बढ़ती गई। इसके पीछे कई कारण थे जैसे एंटीबायोटिक्स का अत्यधिक और अनुचित उपयोग, पशुपालन में एंटीबायोटिक्स का व्यापक इस्तेमाल आदि। 1990 के दशक तक यह एक गंभीर वैश्विक समस्या बन गई।
21वीं सदी की शुरुआत में वैज्ञानिक इस समस्या से निपटने के नए तरीके खोजने लगे। जीनोम अनुक्रमण और कंप्यूटर मॉडलिंग जैसी नई तकनीकों का उपयोग करके नए एंटीबायोटिक्स की खोज की जा रही है। वैज्ञानिक बैक्टीरिया के खिलाफ नए हथियार भी विकसित कर रहे हैं जैसे बैक्टीरियोफेज थेरेपी, एंटीबॉडी दवाएं आदि।
2015 में तेइक्सोबैक्टिन नामक एक नया एंटीबायोटिक खोजा गया जो कई प्रतिरोधी बैक्टीरिया के खिलाफ प्रभावी है। 2020 में हैलिसिन नामक एक और नया एंटीबायोटिक विकसित किया गया। ये खोजें उम्मीद जगाती हैं कि हम एंटीबायोटिक प्रतिरोध की समस्या से निपट सकते हैं।
लेकिन चुनौतियां अभी भी बनी हुई हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार एंटीबायोटिक प्रतिरोध दुनिया के लिए सबसे बड़े स्वास्थ्य खतरों में से एक है। हर साल लाखों लोग प्रतिरोधी संक्रमणों से मर जाते हैं। अगर यही स्थिति रही तो 2050 तक हर साल 1 करोड़ लोगों की मौत हो सकती है।
इसलिए आज पूरी दुनिया एंटीबायोटिक प्रतिरोध से लड़ने के लिए एकजुट हो रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने एक वैश्विक कार्य योजना बनाई है। कई देश एंटीबायोटिक्स के उपयोग को नियंत्रित करने के लिए कड़े कानून बना रहे हैं। वैज्ञानिक नए एंटीबायोटिक्स और वैकल्पिक उपचार खोजने में जुटे हैं।
लेकिन क्या यह प्रयास पर्याप्त होंगे? क्या हम एंटीबायोटिक प्रतिरोध की इस दौड़ में आगे रह पाएंगे? या फिर हम एक ऐसे युग में प्रवेश कर रहे हैं जहां छोटे-छोटे संक्रमण भी जानलेवा हो सकते हैं?
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