प्राचीन काल से ही मनुष्य की सबसे बड़ी चुनौती रही है सांस लेना। जब किसी व्यक्ति को सांस लेने में कठिनाई होती थी, तो उसकी मृत्यु निश्चित थी। प्राचीन मिस्र और ग्रीस में चिकित्सक विभिन्न जड़ी-बूटियों और औषधियों का प्रयोग करते थे, लेकिन ये उपाय अक्सर निष्फल साबित होते थे। मानव जाति के लिए यह एक बड़ी चुनौती थी - क्या कभी ऐसा उपकरण बनाया जा सकेगा जो मृत्यु के मुख से किसी को वापस ला सके?
17वीं शताब्दी में एक चमत्कार हुआ। वैज्ञानिक रॉबर्ट हुक ने एक प्रयोग किया जिसने चिकित्सा जगत को हिला कर रख दिया। उन्होंने एक कुत्ते के फेफड़ों में बेलोज़ से हवा भरी और देखा कि कुत्ता जीवित रहा। यह एक क्रांतिकारी खोज थी। क्या मनुष्य भी इसी तरह बचाया जा सकता था? इस प्रश्न ने वैज्ञानिकों को एक नई दिशा दी।
लेकिन अगले 200 वर्षों तक कोई बड़ी सफलता नहीं मिली। फिर 19वीं शताब्दी में एक नया मोड़ आया। 1838 में स्कॉटिश चिकित्सक जॉन डेलज़ील ने एक अनोखा उपकरण बनाया - पूर्ण-शरीर टैंक वेंटिलेटर। यह एक बड़ा बॉक्स था जिसमें रोगी को बैठाया जाता था, सिर्फ सिर बाहर रहता था। बॉक्स में हवा को पंप करके नकारात्मक दबाव उत्पन्न किया जाता था, जिससे फेफड़े फैलते थे और हवा अंदर जाती थी। यह एक बड़ी सफलता थी, लेकिन क्या यह व्यावहारिक था? क्या इसे बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया जा सकता था?
20वीं शताब्दी की शुरुआत में एक नया आविष्कार हुआ जिसने इतिहास बदल दिया - "आयरन लंग"। 1928 में, हार्वर्ड के दो वैज्ञानिकों - डॉ. फिलिप ड्रिंकर और लुईस शॉ ने इसका निर्माण किया। यह एक बड़ा धातु का सिलेंडर था जिसमें रोगी को लिटाया जाता था, सिर्फ सिर बाहर रहता था। मशीन हवा को अंदर-बाहर करती थी, जिससे फेफड़े फैलते और सिकुड़ते थे। यह एक चमत्कारी उपकरण था!
लेकिन इसकी असली परीक्षा 1950 के दशक में हुई, जब पोलियो महामारी ने दुनिया को अपनी चपेट में ले लिया। हजारों लोगों के फेफड़े काम करना बंद कर रहे थे। आयरन लंग ने उन्हें नया जीवन दिया। लेकिन यह भी पर्याप्त नहीं था। क्या कोई ऐसा उपकरण बनाया जा सकता था जो छोटा हो और अधिक कुशल हो?
इसी समय एक नए युग की शुरुआत हुई - सकारात्मक दबाव वेंटिलेटर का युग। 1950 के दशक में, एक युवा इंजीनियर फॉरेस्ट बर्ड ने बर्ड मार्क 7 रेस्पिरेटर का आविष्कार किया। यह पहला आधुनिक चिकित्सा वेंटिलेटर था जो सकारात्मक दबाव का उपयोग करता था। यह छोटा था, पोर्टेबल था, और बहुत प्रभावी था। क्या यह वेंटिलेटर का भविष्य था?
1960 और 1970 के दशक में वेंटिलेटर तकनीक में तेजी से विकास हुआ। 1971 में SERVO 900 वेंटिलेटर आया, जो एक छोटा, शांत और प्रभावी इलेक्ट्रॉनिक वेंटिलेटर था। यह गहन चिकित्सा इकाइयों (ICU) में क्रांति ला रहा था। लेकिन क्या यह पर्याप्त था? क्या वेंटिलेटर और भी स्मार्ट हो सकते थे?
1980 के दशक में एक नया युग शुरू हुआ - माइक्रोप्रोसेसर वेंटिलेटर का युग। 1982 में Dräger EV-A वेंटिलेटर आया, जो मरीज की सांस लेने की प्रक्रिया को मॉनिटर कर सकता था। फिर Puritan Bennett 7200 और Bear 1000 जैसे वेंटिलेटर आए, जो मरीज की जरूरतों के अनुसार गैस डिलीवरी और मॉनिटरिंग को कस्टमाइज कर सकते थे। यह एक नई क्रांति थी। क्या अब वेंटिलेटर पूरी तरह से स्वचालित हो सकते थे?
21वीं सदी में वेंटिलेटर तकनीक ने एक नया मोड़ लिया। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और मशीन लर्निंग के साथ, वेंटिलेटर अब स्मार्ट मशीनें बन गए हैं। वे मरीज की स्थिति का विश्लेषण करते हैं और वेंटिलेशन सेटिंग्स को स्वचालित रूप से समायोजित करते हैं। लेकिन क्या यह पर्याप्त है?
2020 में COVID-19 महामारी ने दुनिया को हिला दिया। अचानक वेंटिलेटरों की भारी मांग हो गई। लेकिन वेंटिलेटर पर्याप्त संख्या में नहीं थे। इस संकट ने एक नई चुनौती पेश की - क्या जल्दी से और सस्ते वेंटिलेटर बनाए जा सकते हैं?
इस चुनौती का सामना करने के लिए, वैज्ञानिकों और इंजीनियरों ने नए रास्ते खोजे। 3D प्रिंटिंग तकनीक का उपयोग करके त्वरित रूप से वेंटिलेटर के पुर्जे बनाए गए। वेंटिलेटर शेयरिंग तकनीक विकसित की गई, जिससे एक वेंटिलेटर का उपयोग कई मरीजों के लिए किया जा सकता था। भारत में, ISRO ने तीन प्रकार के वेंटिलेटर विकसित किए - VaU, SVASTA, और PRANA। ये सभी नवाचार आपातकालीन स्थितियों में उपयोगी साबित हुए।
लेकिन नई चुनौतियां भी सामने आईं। वेंटिलेटर पर लंबे समय तक रहने से कई जटिलताएं हो सकती हैं, जैसे वेंटिलेटर-संबंधित निमोनिया। इसके अलावा, कुछ मरीजों में वेंटिलेटर से निर्भरता विकसित हो जाती है। इन समस्याओं का समाधान कैसे किया जाए?
वैज्ञानिक अब नए समाधान खोज रहे हैं। एक नया क्षेत्र उभर रहा है - बायोहाइब्रिड वेंटिलेटर। ये वेंटिलेटर जीवित कोशिकाओं का उपयोग करते हैं जो ऑक्सीजन उत्पन्न कर सकती हैं। क्या यह भविष्य का वेंटिलेटर होगा?
एक अन्य क्षेत्र जिस पर काम चल रहा है, वह है नैनोटेक्नोलॉजी आधारित वेंटिलेटर। ये वेंटिलेटर इतने छोटे होंगे कि उन्हें सीधे फेफड़ों में प्रत्यारोपित किया जा सकेगा। क्या यह एक दिन वास्तविकता बन पाएगा?
टेलीहेल्थ और वर्चुअल मॉनिटरिंग के साथ, अब चिकित्सक दूर से मरीजों को मॉनिटर कर सकते हैं और त्वरित हस्तक्षेप कर सकते हैं। क्या भविष्य में हम ऐसे वेंटिलेटर देखेंगे जो स्वयं निर्णय ले सकते हैं और दूरस्थ चिकित्सकों को सूचित कर सकते हैं?
वेंटिलेटर का इतिहास मानव जाति के संघर्ष और जीत की कहानी है। यह एक ऐसी यात्रा है जो अभी भी जारी है। हर नई चुनौती के साथ, नए समाधान सामने आ रहे हैं। वेंटिलेटर न केवल जीवन बचा रहे हैं, बल्कि वे हमें याद दिला रहे हैं कि मानव बुद्धि और दृढ़ संकल्प के सामने कोई भी चुनौती असंभव नहीं है।
आज, जब हम COVID-19 जैसी महामारियों का सामना कर रहे हैं, वेंटिलेटर फिर से हमारे जीवन के रक्षक बन गए हैं। लेकिन यह यात्रा यहीं समाप्त नहीं होती। नई चुनौतियां सामने आ रही हैं और नए समाधान खोजे जा रहे हैं। क्या आने वाले समय में हम ऐसे वेंटिलेटर देखेंगे जो न केवल जीवन बचाएंगे बल्कि जीवन की गुणवत्ता भी बेहतर करेंगे? क्या हम ऐसे वेंटिलेटर देखेंगे जो हमारे शरीर का हिस्सा बन जाएंगे?
वेंटिलेटर का भविष्य रोमांचक और अनिश्चित है। लेकिन एक बात निश्चित है - जब तक मानव जाति का अस्तित्व है, तब तक वेंटिलेटर का विकास और सुधार जारी रहेगा। यह मानव जीवन के रक्षक के रूप में अपनी भूमिका निभाता रहेगा, हर सांस के साथ, हर पल।
Citations:
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